श्री सद्गुरु साटम महाराज के रूप में अलौकिक तेज व लालिमा थी. उनका गठीला बदन व कद पॉंच फीट का था. वो वामन अवतार विष्णु की तरह लगते थे. उनकी वाणी बहुत ही मिठी व मधुर थी. उनके कद की महत्वतता कभी बहुत लंबी लगती तो कभी बहुत साधारण लगती. उनका वजन कभी भारी तो कभी बहुत हल्का लगता, इनका हल्का की बुजुर्ग भी फूलों समान उन्हें उठा लेते. वैसे तो वे दाणोली गॉंव के थेप र वो एक जगह पर कभी भी नही रहते थे. वो जंगलो, गॉंवो मे घूमते रहते और अपने भक्तों की समस्याओं को पूर्णतया हल करते थे. दाणोली मे वो कभी नाजरी नदी में स्नान करते तो कभी गौशाला मे सोते थे. कभी कभी तो वो चार पॉंच दिनों तक बिना कुछ खायें पियें रहते थे. कभी कभी वो एक जिद्दी बच्चे की तरह व्यवहार करते थे. तो कभी पागलों जैसा व्यवहार करते थे, तो कभी वो अपने हाथ में ली हुई चीजों से मार बैठते तो कभी कुछ अपशब्द भी कहते थे. पर इन सबके पीछे उनका लोगों के प्रति प्यार व चिंता थी. मगर यह देखा गया कि जो उनकी मार और गालियों को सह लेते थे. उनकी सभी बिमारियों और दु:खो का समाधान हो जाता था. वे कभी हसते तो कभी रोते थे. इस सबके पीछे कहीं किसी सुखद या दु:खद घटना के घटित होने का संदेश था. औपचारिक ज्ञान की कमी के बावजूद वो कई भाषाऐं जानते थे. वे उसका प्रयोग सिर्फ वार्तालाप में नही परंतु गाना गाने में भी करते थे. वो कभी नाचने लगते और इस नृत्य में इतना खो जाते थे कि वो पूर्णतया नग्न हो जाते थे, और कभी कभी तो वो जमीन पर लोटने लगते थे. उनके लिए उनके शरीर और वस्त्रों की कोई अर्हामयत नही थी. उन्हें अपने शरीर के पंचतत्वो और इंद्रियो पर नियंत्रण था. एक बार उन्होंने देखते ही देखते आसमान से वर्षा कर दी जब कि आसमान पूरा साफ था, और एक बार एक धार्मिक कार्य में वर्षा के कारण व्यवधान हो रहा था उसे अपनी एक दृष्टि मात्र से रोक दिया. वो कभी औरत-मर्द, राजा-रंक मे फर्क नही करते थे. सभी से एक समान व्यवहार करते थे. उन्हें अपने भोजन की कभी चिंता नही रही. जिस तरह चीता अपने भोजन के लिए नही भटकती, जो मिल गया उसे खॉं लेती है उसी तरह वे भी जो कुछ मिलता उसे स्वीकार करते थे. वे सभी बंधनो से आजाद थे. इसके बावजूद श्री साटम महाराज सभी की सहायता करते पर कभी किसी पर एहसान नही जताते थे. वो हमेशा कहते थे कि ईश्र्वर हमेशा तुम्हारी रक्षा करेंगे तुम्हें तुम्हारी ईमानदारी व निष्ठा का फल अवश्य मिलेगा, केवल ईश्र्वर पर विश्र्वास करो. श्री साटम महाराज के चरण कमलों के वजह से दाणोली की धरती धार्मिक हो गई और नाजरी का पानी पवित्र होकर अविरत बहने लगा. दाणोली कि धरती और नाजरी के पानी ने लोगों के मन में उनके प्रति विश्र्वास जागृत किया.
श्री साटम महाराज ने मृत्यु के पहले लोगों से यह वायदा किया कि जो भक्त सच्चे दिल से उन्हें व उनके मंत्रों को याद करेंगे वे उन भक्तों के दिल में हमेशा विराजमान रहेंगे.
श्री साटम महाराज का जन्म
श्री साटम महाराज शंकर घराने से थे. उनका जन्म महाराष्ट्र राज्य के सिंधुदुर्ग जिले के बांदिवडे में हुआ था. उनका जन्म सन 1872 से 1877 के बीच हुआ था. उनके जन्म की सही तिथि का पता नही है. वे मराठा जाति के थे. उनके पिता का नाम नारायण और मॉं का लक्ष्मीबाई था. दोनों स्वभाव से बहुत धार्मिक और भगवान शंकर के परम भक्त थे. वे दोनों नित्यप्रति बेलपत्र से भगवान शिव की पिंडी की पूजा करते थे. नारायण अपनी पत्नी के साथ घंटो मंदिर मे बैठकर शिव आराधना करते थे. उनकी एक ही इच्छा थी कि भगवान शिव उनके पुत्र के रूप में जन्म ले. एक दिन नारायण ने स्वप्न में देखा कि वो पिंडी के सामने ध्यानमग्न थे और अचानक मंदिर की घंटियॉं बज उठी और पिंडी लुप्त हो गयी. उस स्थानपर पिंडी के सामने नंदी बैल खडा है और रिक्त स्थान पर उनकी पत्नी लेटी है. उसका संपूर्ण शरीर बेलपत्र से ढका हुआ है और सिर पर पंचमुखी शेषनाग छत्र किए हुए है. उतने दूर का इलाका दुर्धया रोशनी से नहा उठा. स्वप्न को देखकर आश्र्चर्यचकित होकर उठ बैठे. अगले दिन सवेरे उठकर पत्नी को सारी बातें कही. दोनों इस बात पर विस्मित हो उठे. उन्हें लगा कि भगवान शिव ने उनकी प्रार्थना सुन ली और एक निश्चित समय के अनुसार उनकी पत्नी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र को जन्म दिया. उन दोनों ने इसे भगवान शिव का वरदान माना और पुत्र का नाम शंकर रखा और इस प्रकार श्री सद्गुरु साटम महाराज का जन्म हुआ.
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श्री सदगुरु साटम महाराज
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शंकर का बचपन
नारायण की आर्थिक स्थिती बहुत कमजोर थी इसलिए सबकी सहमती से वे अपनी मातृभूमि छोडकर रोजी रोटी के लिए मुंबई शहर आ पहुँचे. उनके साथ उनकी पत्नी व पुत्र भी थे. शंकर उस समय चार वर्ष के थे. नारायण ने मुंबई के कामाठीपुरा इलाके में एक घर भाडे पर लिया. उनके आसपास का वातावरण अनैतिक व दुराचारी लोगों से भरा पडा था. शंकर पहले ही बिगडैल स्वभाव का था और इस वातावरण में उसे और बढावा मिल गया. शंकर अंतत: एकदम अनुशासनहीन हो गया. उसका पढाई से मन उठ गया और उसने स्कूल जाना भी छोड दिया. स्कूल छोडने के बाद उसने मामूली तनख्वाह पर नरसू मिल में नौकरी कर ली. वो भी कुछ समय बाद छोड दी. कुछ समय बाद उन्होंने एक पारसी मालिक के शराब बार में शराब परोसने का काम किया. वहॉं उसे बहुत से शराबियों और जुआरियों कि संगत मिली.
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श्री सदगुरु साटम महाराज
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युवा शंकर
शंकर की बुरी संगतो से उसके मॉं और पिता बहुत दु:खी और शोकग्रस्त रहने लगे. वे भगवान शिव से उसके व्यवहार को अच्छाई में बदलने की प्रार्थना करने लगे. वो इतने भावुक हो उठे कि वे भगवान शिव को ऐसा चरित्रहीन, विवेकहीन पुत्र देने के लिए कोसने लगे. जो पुत्र अपने ही परिवार का नाम रोशन करने के बजाय लोगों कि नजर में गिरा रहा था. वे भगवान शिव से कहने लगे कि ऐसा पुत्र देने से अच्छा था कि वे दोनों संतानहीन रहते. शंकर के माता पिता ने बहुत कोशिश की के सुधर जाये पर सब व्यर्थ रहा. अंत में उन्होंने उनका विवाह एक बहुत ही सुंदर लडकी जनाबाई के साथ कर दिया. जनाबाई ने भी बहुत कोशिश की परंतु सभी विफल रहें.
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श्री सदगुरु साटम महाराज
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शंकर की किशोरावस्था
एक दिन शराबबार में शंकर की कुछ गुंडो के साथ अनबन हो गयी और वे सभी चाकू और लाठियों से लैस होकर शंकर के घर पर प्रहार करने पहुँच गये. घर के सभी सदस्य भयग्रस्त होकर शंकर को वहॉं से भाग जाने को कहने लगे पर शंकर बिना डरे एक लाठी लेकर कमरे से बाहर आया और निर्दयतापूर्वक सबकी पिटाई करने लगा. इसके बाद शंकर उस जगह का दादा कहलाने लगा. शंकर के दादा बनने के बाद उसके माता पिता व सभी रिश्तेदार उससे घृणा करने लगे. उपहास के माहौल में शंकर के माता पिता और जनाबाई ने उसे अकेला छोड दिया. शंकर के दादा बनते ही शराब बार के आसपास के इलाकें में उसका दबदबा बन गया. शंकर के अच्छे व्यवहार के कारण लोग उसका विरोध नही करते थे. औरतो के लिए उसके दिल में बहुत आदर व सन्मान था. वो सभीको अपनी बहन के समान इज्जत करते थे. किसी महिला का अनादर उन्हें बर्दाश्त नहीं था. शंकर की निगरानी में बार करोबार उन्नति करने लगा. शंकर का काम के प्रति निष्ठा और समर्पण देखकर पारसी मालिक बहुत प्रसन्न हुआ. वो उस पर इतना विश्र्वास करने लगा कि उन्हें बेटा बना लिया और दोपहर का भोजन दोनों साथ साथ करने लगे. भोजन अक्सर मांसाहारी रहता पर शंकर ने हमेशा उनकी भावनाओं की कदर की. अंतत: पारसी मालिक ने उन्हें पूरे बार का मालिक बना कर व्यापार की बागडोर सौंप दी.
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Satam Maharaj Chair
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शंकर का पहला रुपांतरण
शंकर का एक गैर जातिय व्यक्ति से अधिक मेलजोल व मांसाहार भोजन उसके भाई व भाभी को काफी नागवार लगा. उन लोगों मे शंकर के साथ खाना, पीना, उठने बैठने से सख्त मना कर दिया. शंकर के माता पिता इस बहिष्कार से बहुत दु:खी थे और अंतत: वो सख्त बिमार होकर एक के बाद एक स्वर्ग सिधार गये. अंतिम क्षणों में भी वे भगवान शिव को ही याद करते रहे. माता पिता की मृत्यु शंकर के लिए बहुत ही शोक देनेवाली थी. इसलिए वो अकेले रहने लगा और वापस बार का कारोबार देखने लगा. परंतु वो बहुत शांत रहता था, अपने दु:खो को दूसरे से बॉंटता भी नहीं था. समय बीतता गया पर शंकर का व्यवहार वैसाही रहा. सन 1910 में मुंबई शहर में प्लेग की महामारी फैली और महामारी ने शंकर के भाई और भाभी को निगल लिया. अब शंकर नितांत अकेला रह गया था.
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श्री सदगुरु साटम महाराज
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शंकर परिवर्तन की राह पर
इन सब भयावह स्थिती ने शंकर को और भी अकेला कर दिया. सभी भयावह परिस्थीतीयॉं मनुष्य का पीछा नही छोडती, वो उसको अपनी गिरफ्त में ले लेती है. इन भयावह स्थितीयों ने शंकर को जीवन का सत्य जानने के लिए प्रेरित किया और वो पूर्णतया जीवन के सत्य को खोजने लग गया. अंतत: वो इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि जीवन आदि और अनंत है. इस निष्कर्ष पर पहुँचने के बाद शंकर इधर उधर भटकने लगा. इस दरम्यान वो चर्चगेट स्टेशन के पास पवित्र पारसी कुएँ पर पहुँचा. यह पारसी कुआँ अनेको साधु संतो का प्रार्थना स्थल था. शंकर उस जगह की पवित्रता से बहुत प्रभावित हुआ और बहुत समय वहॉं व्यतित करने लगा. इस दरम्यान वो बहुत पवित्र संत अब्दुल रहमान जो कि बाबा के नाम से मशहुर थे उनके सन्निध्य में आया. शंकर उनके चेहरे के तेज से संमोहित हो गया और उनके साथ रहने लगा. शंकर की ये दिवानगी देखकर वो बोले कि बेटा तुम पागल नही है. ये बहुत अच्छी बात होती कि सभी लोग तुम्हारी तरह होते. यह दुनिया पागलो का घर है, इस दुनिया में लोग पैसे, प्रतिष्ठा, शक्ति के पीछे पागल है. किसीको अनंत सुख के बारे में नही मालूम वे सभी क्षणिक सुख के पीछे भाग रहे है. कोई भी व्यक्ति अलोगो को समक्त नही पायेंगा. जो ईश्र्वर में आस्था रखतें है. लोग कुछ भी कहें पर मुझे परमात्मा के आदेश है कि मै तुम्हे आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करु. मै तुम्हारे अंदर के प्रकाश को देखना चाहता हूं और वो मै देख रहा हूं. ईश्र्वर तुम्हें देखने के लिए उतने ही व्याकुल है जितना तुम हो. ये संदेश देने के बाद बाबा ने शंकर के सिर पर हाथ रखा और उसको कुंडलीनी जागृत कर सम्पूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान किया. शंकर की सारी अज्ञानता दूर हो गयी और वो अंतर्ध्यान हो गया. बाबा के इस सानिध्य के बाद वो परम ब्रह्म की ओर अग्रसर हुआ. आंतरिक प्रकाश से जैसे वाल्या कोली (डकैत से संत) वाल्मिकी बन गये. वैसेही शंकर दादा श्री सद्गुरु साटम महाराज हो गये.
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Satam Maharaj Kurta
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